दी गई पेंशन तथा पुनर्वास के नाम पर दिए कर्ज की वसूली हो।

सत्ता के भूत ने शिवराज सिंह को समझाया लोकतंत्र की सत्यता।

 

मुख्य मंत्री श्री कमल नाथ के मीसाबंदी पेंशन योजना बंद किये जाने के निर्णयन का समर्थन करता हूँ। प्रदेश की जनता के खजाने को मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अपनी बपौती मान बैठे थे और बेरहमी के साथ अपनो में उड़ाने का जो सिलसिला शुरु किया था वह मीसाबंदियों  के पेंशन भुगतान तक पहुंचा था। मीसा बंदियों को पेंशन देना कतई उचित नहीं था क्योंकि यह कोई स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे। शिवराज सरकार ने अपने खास लोगों को उपकृत करने के लिए यह योजना शुरू की और इस पर सालाना 75 करोड रुपए खर्च हो रहे थे।

 

 मीसा और मीसाबंदी-

 

बात सन 1973 से शुरू हुई थी अहमदाबाद के छात्रावासों में मिलने वाला समोसा मंगा हो गया था क्योंकि मेस में मिलने वाला खाना अचानक महगा हो गया वजह यह थी कि मेस में इस्तेमाल होने वाला मूंगफली का तेल उन दिनों महंगा हो गया था। इसके खिलाफ छात्रों ने आंदोलन शुरू किया, आंदोलन बढ़ता गया छात्रों ने विधायकों के इस्तीफे लिए उनके घरों को घेरकर इस्तीफे दिलवाए। कोरम के अभाव में विधानसभा भंग कर दी गई। मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल थे। जून में चुनाव हुए और गुजरात में कांग्रेश हार गई। मीसा लगाने का दूसरा वाकया था 12 जून को जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया और छह साल तक चुनाव लड़ने से उनको वंचित किए जाने का फैसला सुनाया। इसी बीच रेल हड़ताल हुई जिसनें कांग्रेश सरकार की चूले हिला दी। उस हड़ताल के नेता जॉर्ज फर्नांडीस थे।इन सब के बाद आंतरिक सुरक्षा का हवाला देते हुए इंदिरा सरकार ने आपातकाल की घोषणा कर दी और आंदोलन से जुड़े तमाम नेताओं को रात में ही गिरफ्तार कर लिया गया।

आपातकाल की जेल यात्रा ने सभी को अलग-अलग तरह के अनुभव दिए। जेल को समाजवादियों और अकालीओं ने हंसते-हंसते कांटा क्योंकि जेल उनके लिए कोई नई चीज नहीं थी और वह इसके आदी थे। आर एस एस के बहुत से लोगों को दिक्कत हुई क्योंकि उनका वर्ग चरित्र जेल काटने का नहीं था लिहाजा कुछ लोगों ने तो बाकायदा माफीनामा लिखा कि उन्हें जेल के बाहर किया जाए और वे लोग अपने कार्यकर्ताओं के साथ इंदिरा गांधी के 20 सूत्री और संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन इंदिरा गांधी ने उनके माफीनामें पर कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। सच कहा जाए तो महज दो तरह के लोग आपातकाल से लड़े एक समाजवादी पृष्ठभूमि के लोग और दूसरे थे अकाली। वे जत्थे में निकलते और आपातकाल के विरोध में नारे लगाते हुए गिरफ्तारी देते थे।

 

संघियों और भाजपाइयों का दोगला चरित्र-

 

22 जुलाई 1977 को संघ और भाजपा के मीसा बंदियों ने विधानसभा में किसी सरकारी सहायता के प्राप्त करने को खैरात मानकर लेने से मना किया था लेकिन जून 2008 यानी 31 वर्ष बाद मीसाबंदी पेंशन लेकर इसे सम्मान निधि कह रहे हैं तथा स्वयम्भू लोकतंत्र सेनानी बन गए है। क्या यह दोगला चरित्र नहीं है ? मीसाबंदी पेंशन की समीक्षा किए जाने के आदेश से मात्र भाजपाइयों में बेचैनी क्यों है ? वह अदालत जाने की बात क्यों कर रहे हैं ? शिवराज सिंह लोकतंत्र पर हमला क्यों बता रहे हैं ? शिवराज सिंह के मुंह से लोकतंत्र शब्द शोभा नहीं देता क्योंकि इनके मुख्यमंत्री कार्यकाल में भोपाल में जो भी जन आंदोलन किए गए हैं उनमें सभी में पुलिस ने लाठी बरसाई है। चाहे किसानों का आंदोलन रहा हो, मजदूरों का, महिलाओं का, संविदा कर्मियों का, कर्मचारियों का, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का, बेरोजगार नौजवानों का आंदोलन रहा हो। शिवराज सिंह ने लोकतंत्र की किस कदर हत्या की है वह अपने 13 साल के पूरे कार्यकाल में मध्य प्रदेश के समस्त कलेक्ट्रेट में स्थाई तौर पर धारा 144 लगाकर के जन आंदोलनों को प्रतिबंधित करके जन की आवाज को कुचलने का काम किया है। सत्ता के भूत से भयभीत शिवराज सिंह को लोकतंत्र की सत्यता समझ में आ गई है।

 

पुनर्वास की राशि एवं दी  गई पेंशन की वसूली हो-

 

मीसा के तहत जेल में बंद किए गए लोगों को जिन्हें मीसाबंदी कहा गया को 1977-78 में तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार के द्वारा पुनर्वास के लिए 25 हजार रुपये का लोन न्यूनतम 4 फ़ीसदी ब्याज दर पर दिया गया। परंतु ऋण की अदायगी किसी के द्वारा नहीं की गई। दिए ऋण की वसूली होनी चाहिए तथा शिवराज सरकार द्वारा वर्ष 2008 से आज तक जिन्हें मीसाबंदी पेंशन भुगतान की गई है उसकी भी वसूली होनी चाहिए।

 

उमेश तिवारी सीधी (म. प्र.)

मो.न. 9630650750

Source : उमेश तिवारी सीधी (म. प्र.)